लोकतंत्र के स्तंभों में संतुलन का अभाव

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संविधान में अंग्रेजों के जमाने के कानूनों के कारण राजनीतिक दलों पर नियंत्रण की कोई वैधानिक और बाध्यकारी व्यवस्था नहीं हुई। जिसका असर ये हुआ कि देश मे एक शोषक वर्ग का जन्म होने लगा। राजनीतिक पहुँच वाले व्यक्ति कोई भी अपराध करके साफ बच निकल जाते है।

लोकतांत्रिक देशों की कतार में भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक, समृद्ध लोकव्यवस्था धर्मनिर्पेक्षता, व बहुसांस्कृतिकता को समेटे हुए एक अकेला ही देश है। इसी लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए चार मजबूत स्तम्भो को निर्मित किया गया। इस चौथे खम्बे को बाकी 3 इकाइयों के काम पर काम निगाह रखने, जनहित की सूचनाये समय पर प्रसारित करने, लोकव्यवस्था निर्माण करने व समाज को एक सूत्र में बांधे रखने के आधार पर रखा गया था। लेकिन मिडिया ने अपने को व्यवसाय निर्मित करने की आहुति में स्वतः झोंका है, जिसका नकारात्मक पहलू साफ नजर आता है। आप ये अंदाजा लगा सकते है कि भारतवर्ष में केवल कथित हिन्दू मुस्लिम मसलो के अलावा भी एक समाज है, समाज मे कट्टरता को घोलकर जनता को उसकी मूल आवश्यकताओं से परे रखा जा रहा है जिसका निर्देशन मौजूदा सरकार कर रही है। मीडिया भी आज अलग विचार और एजेंडे को अपना चुकी है। जिसका अपना अपना लक्षित समाज है। जिसमे उसकी विचारात्मकृता से जुड़ी खबरों का खूब बोलबाला है। मीडिया की यह बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि सम्वेदनशील स्थितियों में समाज की अखंडता को बनाये रखने, बेबाक व तर्कहीन सूचना को समाज मे फैलाने से बचाने की। विरोधी दलों से मैं पूछना चाहूंगा कि क्या संसद सिर्फ इसीलिए है कि आप वहां बैठकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते रहें? संसद के विगत और वर्तमान सत्र में कितने कानून बने, कितने राष्ट्रीय मुद्दों पर सार्थक बरुद्ध हुई, कितना नीति-निर्माण हुआ- इन सब प्रश्नों के जवाब क्या निराशाजनक नहीं हैं?

भारतवर्ष में केवल कथित हिन्दू मुस्लिम मसलो के अलावा भी एक समाज है, समाज मे कट्टरता को घोलकर जनता को उसकी मूल आवश्यकताओं से परे रखा जा रहा है जिसका निर्देशन मौजूदा सरकार कर रही है। मीडिया भी आज अलग विचार और एजेंडे को अपना चुकी है जिसका अपना अपनालक्षित समाज है।

जब कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका का यह हाल है तो बेचारी खबरपालिका क्या करे? जैसा चेहरा होगा, वैसा प्रतिबिंब होगा। टीवी चैनलों पर कोई गंभीर विचार-विमर्श नहीं होता। पार्टी प्रवक्ताओं की तू तू, मैं-मैं ने टीवी पत्रकारिता को टीबी (तीतर-बटेर) पत्रकारिता बना दिया है। इस धमाचौकड़ी से हमारे अखबार अभी तक बचे हुए हैं, लेकिन क्या हम आशा करें कि हमारे लोकतंत्र का यह दौर अल्पकालिक सिद्ध होगा और इसके चारों स्तंभ शीघ्र ही अपना-अपना काम सही-सही करने लगेंगे। संविधान के अनुसार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ हैं लेकिन पत्रकारिता को असंवैधानिक तौर पर लोकतन्त्र का ‘चौथा स्तम्भ’ का स्थान प्राप्त है। पत्रकारिता ही वह शस्त्र है जिसका इस्तेमाल करके जनता के हित में सत्ता से प्रश्न पूछे जाते हैं। सत्ता को जवाबदेह बनाये रखकर आम नागरिक के अधिकारों की सुरक्षा तय की जाती है। मीडिया का काम है सच दिखाना। जनता के विश्वास ने ही इस संस्थान को ‘चौथा स्तम्भ का दर्जा दिया है। मीडिया की आज़ादी छीनने की और उसकी आवाज़ दबाने की कोशिशें हमेशा की जाती रही है।

चैनल पर ‘लाइव बहस’ चलाने की प्रवृति ने शोर मचाकर झूठ फैलाने की परम्परा स्थापित की है। मीडिया का काम सही खबर देना है, खबरों में सन्तुलन करना नहीं। भारत देश के संदर्भ में देखे तो स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान की प्रस्तावना में, भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का संकल्प लिया गया है। लेकिन हमारे संविधान का लगभग दो-तिहाई भाग अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित है। इसका अर्थ हुआ कि गुलामी के शासन की पुरानी अवधारणा को स्वतंत्र भारत के संविधान में जगह दे दी गयी और जो जटिल और आम नागरिक के समझ के बाहर है। जिसके कारण भरपूर संसाधन होते हुए भी आज हमारा देश पिछड़ेपन, महँगाई और भ्रष्टाचार से ग्रसित है। हमारे संविधान में सुधार के नाम पर एक के बाद एक संशोधन होते जा रहे, लेकिन ये सभी संशोधन आमजनता के लिए तो ऊँट के मुँह में जीरे के समान नगण्य सिद्ध हुए। दूसरी कमी, भारत मे निरक्षरता, लिंग भेदभाव, गरीबी, सांस्कृतिक असमानता, राजनीतिक प्रभाव, जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसे समस्यायों का साम करना पड़ता है जो लोकतंत्र के सुचारु कामकाज में बाधाएं उत्पन्न करते हैं ये सब कारक भारतीय लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। लेकिन फि भी हमारा लोकतंत्र कई उतार चढ़ावों और चुनौतियों का सामना करते हुए समय के साथ समृद्ध होता गया, लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तम्भ विधायिका होती है। जो देश की दिशा और दशा निर्धारित करती है जिससे साथ दूसरे स्तम्भ मिलकर देश को मजबूती प्रदान करते है। ऐसे में केवल राजनीतिक दलों के भीतर, लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए एक मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।

पर क्या राजनीतिक पार्टियों संविधान के अनुसार कार्य कर रही हैआज राजनीतिक दलों में ही लोकतंत्र एक बड़ी चुनौती बन गया है। परिवाद वाद, बड़े नेतायों की मनमानी, टिकटों का बंटवारा मे पारदर्शिता न होना राजनीतिक दलों में आम बाता हो गयी है। जिससे उम्मीदवार जो समाज को प्रभावित करता हो या जो धन बली और बाहूबली हो चुनाव के लिए पार्टी के टिकट वितरण के दौरान ऐसे लोगों को ही राजीह दी जाती है।

जिससे जातिवाद, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को बढ़ावा मिलता है। संविधान में अंग्रेजों के जमाने के कानूनों के कारण राजनीतिक दलों पर नियंत्रण की कोई वैधानिक और बाध्यकारी व्यवस्था नहीं हुई। जिसका असर ये हुआ कि देश मे एक शोषक वर्ग का जन्म होने लगा। राजनीतिक पहुँच वाले व्यक्ति कोई भी अपराध करके साफ बच निकल जाते है। प्रशासन और न्यायालय को डरा-धमकाकर या धन से साफ बच जाते तथा जनता को धन, शराब का लालच देकर या जातियों में बांटकर उनको वोट बैंक बनाकर चुनाव जीत जा रहे हैं। जिससे विधायिका क्षेत्रवादी और जातिवादी हो गयी है। वोट राजनीति और सत्ता की लालसा के कारण भ्रष्टाचार देश की जड़ तक पहुँच गया है। जहां विधायिका को जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना चाहिए था।वो विधायिका कुछ लोगों के हाथों का खिलौना बन गयी। धन और ताकत सर्वोपरि हो गए। जिसके कारण संसद में धीरे-धीरे चर्चा, बहस और मंथन नगण्य होता जा रहा है और अराजकता, अमर्यादित आचरण और शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। विपक्ष मत्ता पाने की लालसा मे संसद को रोड पर ला दिया गया। लोकतंत्र के नाम पर देशद्रोही ताकतों के साथ मिलकर बेवजह रोड ब्लॉक करना, धरना-प्रदर्शन करना और सरकारी सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाने की प्रवृत्ति अपनाते जा रहें हैं आज अजीब सी बेरुखी और बेबसी का माहौल बन गया है। जनता का जर्नादन स्वरूप किताबों में सिमट कर रह गया है। जनता की केवल ‘मतदाता के रूप में पहचान बची है, जिसे देश के कर्णधार अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं। धार्मिकता, राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद का चूरन चटाकर और उसके आगे ‘वादों की गाजर लटकाकर जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है जनता मूर्ख बन रही है, बनती रही है। शायद यही लोकतंत्र में ‘लोक का प्रारब्ध है। लोकतंत्र के भी चार स्तंभ हैं. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबर पालिका लगता तो यही है कि लोकतंत्र के चारों पांव ठीक काम कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन “पांवों के काम-काज में बुनियादी फर्क आ गया है। इस बात को या तो देखा नहीं जा रहा है या फिर देखकर

जहां विधायिका को जनता की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना चाहिए था।वो विधायिका कुछ लोगो के हाथों का खिलौना बन गयी। धन और ताकत सर्वोपरि हो गए। जिसके कारण संसद में धीरे-धीरे चर्चा, बहस और मंथन नगण्य होता जा रहा है और अराजकता, अमर्यादित आचरण और शब्दो का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है।

अनदेखा किया जा रहा है कि या तो एक पांव से न दूसरे ‘पांव का काम किया जा रहा है अथवा कोई “पांव खुद इतना थक गया है कि उसका किया और न किया बराबर हो जाता है। लोकतंत्र के चार ‘पांवों में सबसे ज्यादा सशक्त मानी जाने वाली पत्रकारिता कुछ-कुछ लकवा ग्रस्त सी दिखाई देती है। इसके लिए पत्रकारों को ही दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। बहरहाल, कैसी भी स्थिति हो पत्रकारों को सवाल करने से रोका जाना लोकतंत्र के चौथे चरण या चौथे स्तंभ का अपमान है। लेकिन इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया जाएगा क्योंकि मीडिया संस्थानों के मालिक इसी में देश प्रदेश और अपनी भलाई देखते हैं और बढ़ती बेरोजगारी-बेकारी के दौर में पत्रकार अपनी नौकरी खोना नहीं चाहते हैं।

लोकतंत्र के चार चरणों में से अब केवल न्यायपालिका पर ही विश्वास टिका है, चौथा चरण अपने कर्तव्य से भटककर कहीं और इस्तेमाल हो रहा है। फिर भी कलियुग में इसी चौथे चरण का सहारा है।

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